हस्तरेखा विज्ञान | हाथ देखने की विधि | दाहिना हाथ या बायाँ हाथ | हाथ देखने की विधि हाथ का चित्र लेने का प्रकार


हस्त-रेखा-विज्ञान - हस्त रेखा देखने की विधि सीखे 

हस्तरेखा विज्ञान | हाथ देखने की विधि | दाहिना हाथ या बायाँ हाथ |  हाथ देखने की विधि हाथ का चित्र लेने का प्रकार

सर्वप्रथम ये बताना आवश्यक है की ये लेख हस्तरेखा पर लिखी पुस्तक "वृहद् हस्तरेखा शास्त्र " से लिया गया है।

हाथ देखने की विधि 

सर्वप्रथम हस्तरेखा के मूल सिद्धान्तों को हृदयस्थ कर लेना चाहिये । यह पुस्तक के कई बार पठन और मनन से होगा । जो लोग इस पुस्तक को कहीं से भी खोलकर किसी एक रेखा का फलादेश मिलाने की चेष्टा करेंगे उनका फलादेश बहुत से स्थानों में ग़लत हो जायगा। इसका कारण यह है कि ज्योतिषशास्त्र की भाँति हस्त-रेखा-विज्ञान में भी गुण-दोष की तुलना करना, किस गुण की ओर सब लक्षण झुकते हैं या दोषों की अधिकता है तो, किस दोष का मार्जन (दूर होना) होता है किसका नहीं, यह परमावश्यक है।

ज्योतिषशास्त्र में किसी एक भाव (जैसे धनविचार या मातृ-सुख विचार) का विचार करने के लिये जैसे यह देखा जाता है कि इस भाव का स्वामी किस राशि में है, किस नवांश में है, दशवर्गों में शुभ वर्गों में है या पाप वर्गों में-मित्रवर्गों में या शत्रु वर्गों में, भाव का स्वामी किन ग्रहों से दृष्ट या युत है, वह देखने वाले ग्रह बलवान हैं—शुभ वर्गों में या अशुभ वर्गों में ; किन ग्रहों से स्थान-विनिमय है, अपने अष्टक वर्ग में इस भाव के स्वामी की कितनी शुभ रेखा हैं, सर्वाष्टक वर्ग में इस भाव में कुल कितनी रेखा हैं ; भावेश को काल, दिक्, चेष्टाबल कितना प्राप्त है तथा भाव से नवम-पंचम, द्वितीय-द्वादश या चतुर्थ-अष्टम में कितने और कैसे ग्रह हैं ; भाव का स्थिर-कारक बलवान् है या निर्वल, उसी प्रकार किसी एक रेखा का विचार करते समय निम्नलिखित बातों की ओर सदैव ध्यान रखना चाहिये कि-

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(१) दाहिने हाथ में रेखा कैसी है, बायें हाथ में कैसी ।

(२) हाथ का आकार कैसा है, उंगलियाँ मोटी हैं या पतली, उंगलियों में गाँटें निकली हैं या नहीं, उंगलियों के अग्रभाग कैसे हैं, चौकोर, नुकीले या आगे की ओर फैले हुए तथा नाखून कैसे हैं ।

(३) हाथ चुस्त है या ढीला, माँसल है या सूखा, हथेली का रंग कैसा है, लेवी है या चौड़ी, हथेली का माँस सख्त है या मुलायम ।

(४) हाथों के ग्रह-क्षेत्र उन्नत हैं या अवनत, ग्रह-क्षेत्र अपनेअपने उचित स्थान पर हैं या कुछ सरके हुए हैं ।

(५) हाथ में या उंगलियों पर कोई विशेष चिह्न हैं क्या ? यदि हैं तो किस स्थान पर तथा कितने चिह्न हैं।

(६) हाथ में जिस रेखा का विचार कर रहे हैं उस रेखा से मिलते-जुलते हुए हाथ में अन्य लक्षण हैं या उनसे विरुद्ध ।

(७) शरीर तथा मुखाकृति से क्या परिणाम निकलता है। । ये सब बातें ध्यान में तभी रह सकती हैं जव वारम्बार इस पुस्तक का अध्ययन किया जावे और अ नेक हाथ देखे जावें । जिस प्रकार केवल पाकशास्त्र की पुस्तक पढ़ लेने से कोई भोजन बनाने में चतुर नहीं हो जाता उसी प्रकार केवल हस्त-रेखा की एक या दो पुस्तकें पढ़ लेने से मनुष्य फलादेश करने में पूर्ण समर्थ नहीं होता।

इस बात की आवश्यकता है कि अनेक प्रकार के लोगों के हाथ देखे जावे-धनिकों के तथा गरीबों के; अकस्मात् धनी होने वालों के और निरंतर जीवन-भर परिश्रम कर धनिक होने वालों के विद्वानों के तथा मूख के, जो अनेक वर्ष स्कूल में आँवाकर, पैसा खर्च कर मास्टरों के रखने पर भी पढ़ नहीं सके कुलीन पतिव्रता स्त्रियों के तथा अनुचित आचार-विचार वाली स्त्रियों के; स्वस्थ पुरुषों के तथा जीर्ण रोगियों के जिससे एक ही प्रकार के गुण-दोष, सैकड़ों हाथों में देखते-देखते वे गुण-दोष हृदय में खचित हो जावें ।

कहावत है कि ‘शतमारी' वैद्य होता है अर्थात् सैकड़ों-हजारों व्यक्तियों का इलाज करते-करते जब अपनी ग़लती से (गलत निदान और ग़लत औषधि देकर) एक सौ रोगियों को मार चुकता है तब कहीं वैद्य की बुद्धि, ज्ञान और अनुभव परिपक्व होते हैं। उसी प्रकार हजार-दो हज़ार, तीन हजार हाथ देख लेने के बाद अच्छा अनुभव प्राप्त होता है। यदि किसी हाथ में कोई लक्षण देखने में आवे तो नवीन हस्त-परीक्षकों को चाहिये दि उनके अनुमान से जो फलादेश आता है वह जातक के जीवन में घटित हुआ या नहीं यह पूछे । यदि, फल, जिस अवस्था में होना चाहिये, जातक की वह अवस्था बीत चुकी है तो अनुसंधान करना चाहिये कि किस अन्य लक्षण के कारण वह फल घटित नहीं हुआ।

इसके अतिरिक्त देश, काल, पात्र का जिस प्रकार ज्योतिषशास्त्र में पूर्ण विचार किया जाता है उस प्रकार हस्तरेखा-विचार में भी रखना चाहिये । जिन देशों में परस्पर स्त्री-पुरुषों के अन्यथा सम्बन्ध-विशेष होते हैं वहाँ हृदय-रेखा, विवाह-रेखा या शुक्र-क्षेत्र (तथा वहाँ से प्रारम्भ होने वाली प्रभाव रेखाग्रों) का फलादेश भिन्न होता है। इसी प्रकार जहाँ विधवा-विवाह प्रचलित है वहाँ स्त्रियों के भी २-३ विवाह तक बताये जा सकते हैं परन्तु भारतवर्ष में जहाँ सामाजिक वातावरण भिन्न है यदि पाश्चात्य हस्त-परीक्षा सिद्धान्तों को अक्षरशः घटाने का प्रचार किया जाएगा तो परिणाम ठीक नहीं बैठेगा । इस कारण पाश्चात्य हस्त-परीक्षा के केवल मूल सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये। जैसे समाज के लोगों की हस्तपरीक्षा करनी है तो उसके अनुसार अपनी बुद्धि से तारतम्य कर फलादेश करना उचित है।

जब हाथ देखते-देखते पर्याप्त अभ्यास हो जाय तब शुद्ध तथा शांत चित्त से ऐसे स्थान में हाथ देखना चाहिये जहाँ अनेक लोगों की भीड़ न हो, कोलाहल न हो। क्या ज्योतिष-शास्त्र, क्या मन्त्रशास्त्र सभी गम्भीर शास्त्रों का अनुशीलन तथा उपयोग करते समय बुद्धि का एकाग्र होना परमावश्यक है। बुद्धि की एकाग्रता होने से अनेक रेखाओं तथा हाथ के अन्य लक्षणों का स्मरण बराबर बना रहता है। इस कारण एक लक्षण का दूसरे लक्षण से बुद्धि तत्काल समन्वय और सामंजस्य कर लेती है। किन्तु जहाँ हाथ देखा जा रहा हो वहाँ अनेक मनुष्य बैठे हों तो हस्त-परीक्षक का ध्यान बट जाता है। इस कारण चित्त में वह एकाग्रता नहीं आने पाती जो परमावश्यक है। जब एकाग्र चित्त का बुद्धि से संयोग होता है तो हृदय में भीतर से स्फूति होती है। उस स्फूति के अनुसार फलादेश किया जाता है। यदि चित्त की एकाग्रता नहीं होती तो स्फूति भी नहीं होती।

शास्त्र का नियम है कि जहाँ हँसी-दिल्लगी या चुहलबाज़ी हो रही हो, जहाँ हस्तपरीक्षा में विश्वास न करने वाले कुतर्की हों, किसी स्थान पर खड़े-खड़े, रास्ते में, घोर रात्रि में, जहाँ पूर्ण प्रकाश न हो वहाँ हस्तपरीक्षा नहीं करनी चाहिये। जो जातक हस्त-परीक्षक से विवाद या बहस करे, बिना आवश्यकता के बीच-बीच में बात कर विघ्न डालता जावे, अभिमानी हो, हस्त-परीक्षक की अवहेलना करे, उसका हाथ न देखे ।

हस्तपरीक्षा कराने वाले को उचित है कि शांत चित्त हो, फलफूल या द्रव्य भेंट कर हस्त-परीक्षक को नमस्कार कर विनीत भाव से शुभाशुभ पूछे ।

शास्त्रों में यह जो लिखा है कि सभा में, विद्वानों के बीच या भूख की मंडली में हाथ न देखे तो इसका कारण यह है कि मुख के बीच में उपहास का भय होता है। अनेक विद्वानों के बीच में हाथ देखने की विधि बैठने से उनके मस्तिष्क का प्रभाव हस्त-परीक्षक पर पड़ता है । इस कारण हस्त-परीक्षक के विचार स्वाभाविक रीति से एकाग्र नहीं हो पाते । विचारों की एकाग्रता के बगैर बुद्धि से शुद्ध संयोग नहीं होता। जिस समय हस्तपरीक्षा की जावे हस्त-परीक्षक के चित्त में क्रोध, भ्रान्ति, उद्वेग, भय, लज्जा, घृणा, अवहेलना या त्वरा नहीं होनी चाहिये ।

यदि हाथ देखते-देखते कौटुम्बिक परिस्थितिवश ऐसा हो जावे (बाहर से कोई मेहमान आ जायें, जिनके आतिथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट हो गया या किसी की सहसा बीमारी के कारण चिता का उद्वेग हो जावे) तो हस्तपरीक्षा स्थगित कर किसी दूसरे दिन हस्त-रेखाओं का, शुद्ध तथा अचल चित्त से, विचार करना चाहिए।
हस्त-परीक्षक को उसके तथा अपने स्वरूपानुरूप भेंट देना आवश्यक है, 'रिक्तपाणि' (खाली हाथ) पंडित या ज्योतिषी के पास जाकर फल पूछना शास्त्रीय मर्यादा के विरुद्ध है। इस शास्त्रीय परिपाटी का उल्लंघन करने से फल ठीक नहीं मिलता। इसी कारण लिखा है - ‘हस्तं श्रीफल पुष्पाद्यैः प्रपूर्य विनयान्वितः ।

दाहिना हाथ या बायाँ हाथ -

भारतीय मत यह है कि पुरुषों का दाहिना हाथ तथा स्त्रियों का बायाँ हाथ प्रधान होता है । पाश्चात्य मत इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न हैं। कुछ पाश्चात्य हस्त-परीक्षक स्त्री-पुरुष दोनों के बायें हाथ को ही प्रधानता देते हैं, कुछ दाहिने को । ईसा से ३५० वर्ष पूर्व सिकन्दर महान् के गुरु सुप्रसिद्ध दार्शनिक एरिस्टोटिल हुए। उन्होंने लिखा है कि हृदय के विशेष समीप होने के कारण 'बायें हाथ का अधिक महत्व है। किन्तु अधिक सम्मत मत यह है कि दाहिने हाथ को प्रधान मानना चाहिये । बायें हाथ में जन्मजात गुण-अवगुण अविकल रूप से रहते हैं । दाहिने हाथ में जन्म के गुण-अवगुणों में जातक ने अपने आचार-विचार-व्यवहार से क्या परिवर्तन उपस्थित किया, यह विशेष स्पष्ट होता है। इस कारण हमारा विचार यह है कि दोनों हाथों की रेखाओं को ध्यानपूर्वक देखकर पुरुषों के दाहिने हाथ तथा स्त्रियों के बायें हाथ को विशेष महत्व देना चाहिये। । दोनों हाथों में एक से लक्षण हों तो उस फल की पुष्टि होती है । इस विषय में यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि बहुत से ऐसे मनुष्यों के हाथ देखने का हमें अवसर प्राप्त हुआ जिनको दाहिने की अपेक्षा बायाँ हाथ विशेष क्रियाशील है-—अर्थात् यदि उनसे कहा जावे कि आप एक गेंद को पूरी ताकत से दाहिने हाथ से फेंकिये और फिर उनसे ही बाय हाथ से गंद फिकवाई जाय तो बायें हाथ से फेकी हुई गेंद अधिक दूर जावेगी । ऐसे व्यक्तियों के बायें हाथ की रेखाओं को विशेष महत्व देने से फलादेश अधिक ठीक बैठा।

समय-हस्तपरीक्षा के लिये प्रातःकाल का समय सबसे उपयुक्त है । हस्त-परीक्षक तथा जातक दोनों का चित्त शांत और स्थिर होता है। शरीर को रात्रि-भर के विश्राम मिल जाने के कारण हाथ का रंग भी विशेष स्वाभाविक रहता है। यदि सवेरे सुविधा न हो तो दोपहर या तीसरे पहर अच्छे प्रकाश में हाथ देखना चाहिए। हाथ को ‘आई ग्लास' से देखने से सूक्ष्म रेखा भी बडी दिखाई देती हैं इसलिये रेखाग्रों का अच्छी प्रकार अनुसंधान हो सकता है। जहाँ रेखा सूक्ष्म हों हथेली के उस भाग को अच्छी तरह दबाने से उन रेखाओं का स्वरूप अच्छी तरह दिखाई देगा।

वास्तव में हाथ को देखने से जो उसके रंग, रूप, लचक, माँसलता, चमक आदि का अनुमान हो सकता है वह उसके चित्र से नहीं । तथापि जहाँ 'हाथ' देखना संभव नहीं वहाँ हाथ के रंग, रूप आदि का विवरण अलग से मँगाकर, हाथ के चित्र से रेखाओं का विचार किया जा सकता हैं ।

हाथ देखने की विधि हाथ का चित्र लेने का प्रकार

हाथ का चित्र लेने का सबसे सुन्दर और सरल प्रकार यह है कि एक मोटे काँच पर छापे की स्याही डालकर उसे रबर के ‘रोलर' से (जैसा छापाखानों में स्याही लगाने के काम में लिया जाता है) घोटना चाहिये । जब सारे ‘रोलर' पर समान रूप से पतली स्याही लग जावे तो जातक के सारे हाथ पर रोलर से ही हल्की-सी स्याही लगा देनी चाहिए। जब स्याही हाथ पर लग जाय तो किसी सफ़ेद कागज पर हाथ की छाप ले ली जाय। हाथ को मध्य भाग कुछ गड्ढेयुक्त होता है इसलिये जिस कागज़ पर हाथ की छाप ली जावे उसके नीचे मध्य भाग में थोड़ी सी रुई की पतली-सी गद्दी रख दी जावे तो हाथ के मध्य भाग की छाप भी अच्छी प्रकार आ जावेगी ।

हाथ की छाप लेते समय अर्थात् जब कागज़ पर हाथ रखा हो एक काली पेंसिल से उंगली, अँगूठे तथा हथेली के आकार स्पष्ट करने के लिये उनके चारों ओर बिलकुल भिड़ाकर रेखा खींचनी चाहिये । इस प्रकार हाथ तथा उंगलियों का आकार पेंसिल से खींची हुई रेखा से स्पष्ट हो जावेगा और करतल की रेखाओं की छाप ज्यों-की-त्यों कागज़ पर आ जावेगी ।

प्रारम्भ में अभ्यास न होने से हाथ की छाप स्पष्ट न अावेगी । किन्तु अभ्यास कर लेने से यह कार्य अत्यन्त सुगम हो जाता है ।

हाथ की छाप एक प्रकार से हाथ का स्थायी ‘रिकार्ड' या नक्शा हो गया। किन्तु इसे सर्वांग सम्पूर्ण वनाने के लिये हाथ की बनावट, हथेली का रंग, आकार, नखों, अँगुष्ठों तथा उंगलियों की बनावट, लम्बाई, मोटाई, पारस्परिक अन्तर, रेखात्रों तथा चिह्नों का विवरण लिख लेने से कोई बात भूलने की गुंजाइश नहीं रहती।

इस पुस्तक में हस्त-रेखा-विज्ञान पर जितने प्रकरण दिये गये हैं। उतने ही शीर्षक बनाकर-विवरण लिखना विशेष सुविधाजनक होता है। फिर सब लक्षणों का संतुलन और समन्वय कर देश, काल, पात्र, परिस्थिति का विचार कर फलादेश करना उचित है ।


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