हथेली में पांच मुद्रिका (गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध और शनि) | Guru, Shani, Surya, Shukra 5 Mudrika Hastrekha
(१ ) गुरु या बृहस्पति मुद्रा—यह एक अर्धचन्द्राकार रेखा होती है जोकि तर्जनी उंगली के नीचे गुरु क्षेत्र को घेर करके वह तर्जनी के बाहरी भाग से वृताकार शनि क्षेत्र को जाती है जोकि किसी-किसी हाथ में शनि क्षेत्र को गुरु क्षेत्र से अलग करती हुई ऊपर को बढ़ जाती है जोकि सामुद्रिक शास्त्र में बृहस्पति या गुरु मुद्रा के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि यह रेखा बहुत ही कम हाथों में दिखाई देती है फिर भी अधिक शुभ फलदायक नहीं होती जितना कि मनुष्य इसको देखकर आशा करते हैं। खासकर नये प्रेक्षक या पामिस्ट तो इसको देखते ही खुशी से फूल जाते हैं और प्रष्टा को अत्यन्त शुभ फल कहकर खुशी से फुला देते हैं। किन्तु वास्तव में बात इस प्रकार नहीं होती। मेरा अनुभव दूसरे प्रेक्षकों से कुछ भिन्न ही रहा है।
अभी तक मैंने इसका प्रभाव यही पाया है कि इस मुद्रा से अंकित हाथ वाला मनुष्य कल्पना के प्रवाह में बहकर संकल्प-विकल्प के संसार में विचरण करने वाला होता है। उसकी धनतृषा, उच्चाभिलाषा, उच्चाधिकार पाने की चेष्टा इतनी अधिक बलवती हो जाती है कि वह सोचने लगता है कि मैं एक बड़ा आदमी हो गया हैं और संसार का प्रत्येक शुभ तथा अच्छा गुण मेरे आधीन है। जिसके लिए सर्व साधारण को मेरी इज्ज़त करनी ही चाहिए।
(३ ) रवि मुद्राः--वह अर्ध चन्द्राकार रेखा है जोकि मध्यमा ओर अनामिका उगली के मध्य या समीप वाले भाग से निकलकर रवि क्षेत्र को घेरती हुई अनामिका और कनिष्टिका उगली के मध्य भाग या उसके समीप वाले भाग तक पहुँचती है । यह मुद्रा जिस हाथ में भी होती है।
उस आदमी के रवि शुभ गुणों का ह्रास करके विफलता की ओर ले जाती है। यद्यपि यह मुद्रा बहुत कम हाथों में पाई जाती है फिर भी जिन हाथों में यह रवि या सफलता रेखा जोकि यश, बड़ाई, नामवरी की प्रतीक हैं, काटती हुई स्पष्ट रूप से दिखाई देती हो तो उस मनुष्य को अपयश, अपकीति प्रदान करके प्रत्येक कार्य में विफलता प्रदान करती है। उसके शुभ गुण अशुभ गुणों में बदल जाते हैं।
किन्तु गुरु क्षेत्र के शुभ होने पर ऐसे मनुष्य विद्या प्रेमी, कला प्रेमी, प्राकृतिक सौन्दर्य के उपासक होते हैं और अपनी विशेषताओं पर मुग्ध रहकर दूसरे मनुष्य पर व्यर्थ रोब बिठाने का प्रयत्न करते हैं और असम्भव कल्पनाओं को बातों ही बातों में पूर्ण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। किन्तु शिथिल प्रयास होने के कारण बहुत कम सफल होते हैं। जब इस लोक सफलता नहीं मिलती तो परलोक में शुभ परिणाम पाने की इच्छा रखते हैं। ऐसे आदमी विचारों में बातों द्वारा चाहे जितने बड़े हो जाएँ किन्तु वास्तव में बड़े आदमी होते नहीं देखे जाते।
(२ ) शनि मुद्राः—उस अर्ध चन्द्राकार रेखा को कहते हैं जोकि तर्जनी और मध्यमा उगली के मध्य भाग से निकलकर शनि क्षेत्र को घेरती हुई मध्यमा और अनामिका उगली के बीच में समाप्त होती है। इस शनि मद्रा का प्रभाव मनुष्य जीवन पर कुछ अच्छा नहीं पड़ता। क्योंकि देखने में अब तक यही आया है कि जिस मनुष्य के हाथ में यह मुद्रा होती है वह मनुष्य अधिकतर संसार से विरक्त-सा ही रहता है और सांसारिक सुख-दुखों से उदासीन-सा रहकर परलोक सुधारने की इच्छा से भजन, पूजा-पाठ करने के लिए सदैव एकान्त प्रिय रहता हैं। वह सदा ही गृप्त अर्चना में रहकर अपने ध्यान में लीन रहता है। उसकी एकान्त मुद्रा उसे साधु जीवन व्यतीत करने के लिए विवश करती है और वह अवकाश पाते ही सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए जंगल में चला जाता है। ऐसी बात नहीं है कि शनि मुद्रा से ही मनुष्य बाल्यकाल या शैशव से ही जंगल में चले जाते हैं और विवाह आदि सम्बन्धों से बिल्कुल ही वंचित रहते हैं। बहुत से मनुष्य तो सदैव । ये लेख भारत के प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री नितिन कुमार पामिस्ट द्वारा लिखा गया है अगर आप उनके दवारा लिखे और लेख भी पढ़ना चाहते है तो गूगल पर इंडियन पाम रीडिंग ब्लॉग को सर्च करें और उनके ब्लॉग पर जा कर उनके लिखे लेख पढ़ें । अविवाहित रहकर घर तथा बन में जैसे भी सुभीता रहे योगाभ्यास करते हैं किन्तु अधिकतर मनुष्य गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत कर सन्तति आदि का सुप्रबन्ध कर, यौवन के ढ़ल जाने पर समय पाते ही घर-बार छोड़कर चल देते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि शनि मुद्रा का प्रभाव रागों को छुड़ाकर वैराग्य दे देने वाला है। ऐसा मनुष्य हमेशा सद्गुरु की तलाश में इधर-उधर भटकता फिरता है।
(२ ) शनि मुद्राः—उस अर्ध चन्द्राकार रेखा को कहते हैं जोकि तर्जनी और मध्यमा उगली के मध्य भाग से निकलकर शनि क्षेत्र को घेरती हुई मध्यमा और अनामिका उगली के बीच में समाप्त होती है। इस शनि मद्रा का प्रभाव मनुष्य जीवन पर कुछ अच्छा नहीं पड़ता। क्योंकि देखने में अब तक यही आया है कि जिस मनुष्य के हाथ में यह मुद्रा होती है वह मनुष्य अधिकतर संसार से विरक्त-सा ही रहता है और सांसारिक सुख-दुखों से उदासीन-सा रहकर परलोक सुधारने की इच्छा से भजन, पूजा-पाठ करने के लिए सदैव एकान्त प्रिय रहता हैं। वह सदा ही गृप्त अर्चना में रहकर अपने ध्यान में लीन रहता है। उसकी एकान्त मुद्रा उसे साधु जीवन व्यतीत करने के लिए विवश करती है और वह अवकाश पाते ही सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए जंगल में चला जाता है। ऐसी बात नहीं है कि शनि मुद्रा से ही मनुष्य बाल्यकाल या शैशव से ही जंगल में चले जाते हैं और विवाह आदि सम्बन्धों से बिल्कुल ही वंचित रहते हैं। बहुत से मनुष्य तो सदैव । ये लेख भारत के प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री नितिन कुमार पामिस्ट द्वारा लिखा गया है अगर आप उनके दवारा लिखे और लेख भी पढ़ना चाहते है तो गूगल पर इंडियन पाम रीडिंग ब्लॉग को सर्च करें और उनके ब्लॉग पर जा कर उनके लिखे लेख पढ़ें । अविवाहित रहकर घर तथा बन में जैसे भी सुभीता रहे योगाभ्यास करते हैं किन्तु अधिकतर मनुष्य गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत कर सन्तति आदि का सुप्रबन्ध कर, यौवन के ढ़ल जाने पर समय पाते ही घर-बार छोड़कर चल देते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि शनि मुद्रा का प्रभाव रागों को छुड़ाकर वैराग्य दे देने वाला है। ऐसा मनुष्य हमेशा सद्गुरु की तलाश में इधर-उधर भटकता फिरता है।
यदि शनि मुद्रा भाग्य रेखा से ऊपर ही रहती हो या भाग्य रेखा को किसी भी प्रकार से छूती या काटती न हो तो वह मनुष्य अपने ध्येय में किसी हद तक सफलता प्राप्त कर लेता है और जिस हाथ में शनि मुद्रा भाग्य रेखा को काटती हो वह मनुष्य परमार्थ से गिरकर विचारों की संकीर्णता के कारण तपस्या छोड़कर फिर घर लौट आता है और अधोगति को प्राप्त होकर अपने बुरे दिन देखता है। ऐसे आदमी बहुत कम होते हैं जो दीक्षित होने के बाद भी गृहस्थी बनकर जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
यह एक अशुभ लक्षण है, जिस मनुष्य के हाथ में यह होता है उसे सांसारिक तथा पारलौकिक सभी सुखों से वंचित कर सदैव के लिए अपयश का भागी बनाकर उदास तथा सुस्त, और सीमित रहने के लिए विवश करता है।
(३ ) रवि मुद्राः--वह अर्ध चन्द्राकार रेखा है जोकि मध्यमा ओर अनामिका उगली के मध्य या समीप वाले भाग से निकलकर रवि क्षेत्र को घेरती हुई अनामिका और कनिष्टिका उगली के मध्य भाग या उसके समीप वाले भाग तक पहुँचती है । यह मुद्रा जिस हाथ में भी होती है।
उस आदमी के रवि शुभ गुणों का ह्रास करके विफलता की ओर ले जाती है। यद्यपि यह मुद्रा बहुत कम हाथों में पाई जाती है फिर भी जिन हाथों में यह रवि या सफलता रेखा जोकि यश, बड़ाई, नामवरी की प्रतीक हैं, काटती हुई स्पष्ट रूप से दिखाई देती हो तो उस मनुष्य को अपयश, अपकीति प्रदान करके प्रत्येक कार्य में विफलता प्रदान करती है। उसके शुभ गुण अशुभ गुणों में बदल जाते हैं।
रवि रेखा का रवि मुद्रा द्वारा काटा जाना एक अत्यन्त अशुभ लक्षण है जिसका कुप्रभाव उसके प्रेम सम्बन्धों पर बहुत ही बुरी पड़ता है। ऐसा मनुष्य सच्चरित्र होने पर भी कलंकित हो जाता है और व्यर्थ की बदनामी उसके सिर पर आती है।
(४ ) बुध मुद्रा - वह अर्ध चन्द्राकार रेखा है जोकि कनिष्टिका ऊँगली और अनामिका उगली के मध्य या समीप वाले भाग से निकलकर बुध क्षेत्र को घेरती हुई कनिष्टिका उगली और अनामिका के मध्य भाग या उसके समीप वाले भाग तक पहुँचती है । यह मुद्रा जिस हाथ में भी होती है वह व्यक्ति व्यापार में नुकसान ही उठाता है और उसका वैवाहिक जीवन भी असंतोसजनक होता है अधिकतर ऐसे लोगो का विवाह होता ही नहीं है या फिर बहुते लेट प्रौढ़ अवस्था में होता है।
बुध मुद्रिका को हाथ में किसी भी तोर पर शुभ नहीं माना जा सकता है क्युकी बुध पर्वत व्यापार के लिए मुख्या पर्वत है और इस पर मुद्रिका होने से इसके प्रभाव में कमी आ जाती है। ऐसे व्यक्ति को व्यपार नहीं करना चाहिए और नौकरी ही करनी चाहिए। ये लेख भारत के प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री नितिन कुमार पामिस्ट द्वारा लिखा गया है अगर आप उनके दवारा लिखे और लेख भी पढ़ना चाहते है तो गूगल पर इंडियन पाम रीडिंग ब्लॉग को सर्च करें और उनके ब्लॉग पर जा कर उनके लिखे लेख पढ़ें ।
बुध मुद्रिका होने पर व्यक्ति बुरे कामो से धन कमाने की लालसा भी रखता है जिस वजह से उनको धन और मानहानि भी होती है।
(५) शुक्र-मुद्राः—यह नवीन चन्द्राकार रेखा विभिन्न हाथों में विभिन्न प्रकार की पाई जाती है । इसके उद्गम तथा अवसान के स्थान विभिन्न हाथों में विभन्न प्रकार से ही पाए जाते हैं जैसे :-
प्रथमः-शुक्र मुद्रा वह होती है जोकि तर्जनी उगली से आरम्भ होकर अर्ध चाप या चतुर्थाश चाप की भांति शनि रवि क्षेत्रों में होती हुई चतुर्थ उगली कनिष्टिका पर समाप्त होती है।
द्वितीयः-शुक्र मुद्रा वह होती है जोकि तर्जनी तथा मध्यमा उगली के मध्य भाग से प्रारम्भ होकर धनुषाकार अनामिका और कनिष्टिका के मध्य भाग पर जो रिक्त स्थान है उस पर पहुँचकर समाप्त हो जाती है ।
तृतीयः-शुक्र मुद्रा वह होती है जोकि मध्यमा और अनामिका उगली को ही वृतांश में घेरकर समाप्त हो जाती है।
चतुर्थः--शुक्र मुद्रा वह होती है जोकि गुरु क्षेत्र से आरम्भ होकर लम्बाई में अण्डाकार हृदय रेखा से ऊपर बुध क्षेत्र पर पहुँचते-पहुँचते ही समाप्त हो जाती है।
इन सभी शुक्र मुद्राओं के गुण, कर्म और स्वभाव एक दूसरे से भिन्न होते हैं जोकि मनुष्य जीवन पर स्थानान्तर से पृथक्-पृथक् ही अपना प्रभाव प्रदशत करते हैं। जोकि अपनी-अपनी विषमता से मनुष्य मात्र को उत्थान-पतन के लिए व्यर्थ ही विवश करते हैं जिनका प्रभाव इस प्रकार निम्नांकित किया। जाता है।
(१) जो शुक्र मुद्रा केवल शनि और सूर्य क्षेत्र को ही किसी भी हाथ में घेरती है और वह हाथ बनावट के अनुसार अशुभ हो और शुक्र तथा चन्द्र क्षेत्र भी अपना दुष्प्रभाव दिखाने वाले हों और इसके अतिरिक्त यदि मंगल रेखा भी गहरी, चौड़ी, फैली हुई तथा लाल सुर्ख रंग की हो तो वह मनुष्य अतिशय दुराचारी, लम्पट, दुष्ट प्रकृति तथा दुश्चरित्र होता है ।
(२) इसी प्रकार की अशुभ शुक्र मुद्रा गहरी, चौड़ी तथा अत्यन्त लाल रंग की होकर किसी भी मनुष्य के हाथ की भाग्य तथा रवि रेखा को काटती हुई अंकित हो तो मनुष्य की बुद्धि, धन, जन का ह्रास करने वाली होती है। उसके विचार दूषित हो जाने के कारण वह निम्न कोटि के कार्य करने लगता है। वह प्रेम के सम्बन्ध में अत्यन्त उतावला, कामातुर, इन्द्रियलोलुप तथा लम्पट होकर इधर-उधर घूमता हुआ दृष्टिगोचर होता है । जिस कारण वह बदनाम हो जाता है।
(३) यदि किसी हाथ में यही शुक्रमुदा पतली, हल्की तथा निर्दोष अवस्था में विद्यमान हो और किसी भी रूप में भाग्य और सूर्य रेखा को न तो स्पर्श ही करती हो और न उन्हें काटती ही हो तो किसी प्रकार से कुछ न कुछ शुभ फलदायक अवश्य होती है । ऐसा मनुष्य बड़ा ही समझदार, चतुर, प्रेमी, प्राकृतिक दृश्यों का प्रशंसक होता है।
(४) यदि किसी मनुष्य के हाथ में अथवा किसी स्त्री के हाथ में निकृष्ट प्रकार की शुक्र मुद्रा दुहेरी, तिहेरी अथवा चौहैरी एक दूसरे के समानान्तर जाती हों और भाग्य तथा रवि रेखाओं को काटती हों तो ऐसे स्त्री-पुरुष अप्राकृतिक नियमों को बर्तने वाले होते हैं जिनका उनके मस्तिष्क पर अत्यन्त खराब प्रभाव पड़ता है जिससे स्त्रियाँ अधिकतर हिस्टीरिया, रतौंदा आदि रोगों से पीड़ित रहती हैं और पुरुषों को मृगी रिंगोडा आदि के भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ये लेख भारत के प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री नितिन कुमार पामिस्ट द्वारा लिखा गया है अगर आप उनके दवारा लिखे और लेख भी पढ़ना चाहते है तो गूगल पर इंडियन पाम रीडिंग ब्लॉग को सर्च करें और उनके ब्लॉग पर जा कर उनके लिखे लेख पढ़ें । ऐसे आदमियों के रंग पीले, शरीर दुर्बल, हृदय कमजोर, मस्तिष्क निर्बल होते हैं जो कि किसी भी बात को उचित रूप से नहीं सोच सकते।
(१) जो शुक्र मुद्रा केवल शनि और सूर्य क्षेत्र को ही किसी भी हाथ में घेरती है और वह हाथ बनावट के अनुसार अशुभ हो और शुक्र तथा चन्द्र क्षेत्र भी अपना दुष्प्रभाव दिखाने वाले हों और इसके अतिरिक्त यदि मंगल रेखा भी गहरी, चौड़ी, फैली हुई तथा लाल सुर्ख रंग की हो तो वह मनुष्य अतिशय दुराचारी, लम्पट, दुष्ट प्रकृति तथा दुश्चरित्र होता है ।
(२) इसी प्रकार की अशुभ शुक्र मुद्रा गहरी, चौड़ी तथा अत्यन्त लाल रंग की होकर किसी भी मनुष्य के हाथ की भाग्य तथा रवि रेखा को काटती हुई अंकित हो तो मनुष्य की बुद्धि, धन, जन का ह्रास करने वाली होती है। उसके विचार दूषित हो जाने के कारण वह निम्न कोटि के कार्य करने लगता है। वह प्रेम के सम्बन्ध में अत्यन्त उतावला, कामातुर, इन्द्रियलोलुप तथा लम्पट होकर इधर-उधर घूमता हुआ दृष्टिगोचर होता है । जिस कारण वह बदनाम हो जाता है।
(३) यदि किसी हाथ में यही शुक्रमुदा पतली, हल्की तथा निर्दोष अवस्था में विद्यमान हो और किसी भी रूप में भाग्य और सूर्य रेखा को न तो स्पर्श ही करती हो और न उन्हें काटती ही हो तो किसी प्रकार से कुछ न कुछ शुभ फलदायक अवश्य होती है । ऐसा मनुष्य बड़ा ही समझदार, चतुर, प्रेमी, प्राकृतिक दृश्यों का प्रशंसक होता है।
(४) यदि किसी मनुष्य के हाथ में अथवा किसी स्त्री के हाथ में निकृष्ट प्रकार की शुक्र मुद्रा दुहेरी, तिहेरी अथवा चौहैरी एक दूसरे के समानान्तर जाती हों और भाग्य तथा रवि रेखाओं को काटती हों तो ऐसे स्त्री-पुरुष अप्राकृतिक नियमों को बर्तने वाले होते हैं जिनका उनके मस्तिष्क पर अत्यन्त खराब प्रभाव पड़ता है जिससे स्त्रियाँ अधिकतर हिस्टीरिया, रतौंदा आदि रोगों से पीड़ित रहती हैं और पुरुषों को मृगी रिंगोडा आदि के भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ये लेख भारत के प्रसिद्ध हस्तरेखा शास्त्री नितिन कुमार पामिस्ट द्वारा लिखा गया है अगर आप उनके दवारा लिखे और लेख भी पढ़ना चाहते है तो गूगल पर इंडियन पाम रीडिंग ब्लॉग को सर्च करें और उनके ब्लॉग पर जा कर उनके लिखे लेख पढ़ें । ऐसे आदमियों के रंग पीले, शरीर दुर्बल, हृदय कमजोर, मस्तिष्क निर्बल होते हैं जो कि किसी भी बात को उचित रूप से नहीं सोच सकते।
ऐसे मनुष्य अधिकतर नवयुवक तथा नवयुवती ही होते हैं जो कि कभी-कभी बहस में अपनी शक्ति से अधिक कार्य करने के लिए उत्तेजित होकर अपना बहुत कुछ नुकसान कर लेते हैं ।
(५) यदि शुक्र मुद्रा किसी शुभ हाथ में भी टूटी हुई हो तो उस मनुष्य को हृदय का दुर्बल बनाकर काम वासनामय बना देती है। वह सदा कुलहीन स्त्रियों का सहयोग पसन्द करता है और यदि यह मुद्रा अशुभ हाथों में टूटी हुई हो तो वह मनुष्य अत्यन्त निन्द्य कार्य करने वाला होता है। अनेक दुष्कर्म करने के बाद अपना पतन अपनी आँखों से देखकर पछताता है तथा रोता है।
(६) यदि शुक्र मुद्रा द्वारा किसी भी हाथ में विवाह रेखा कोटी जाती हो तो वह मनुष्य प्रेम के सम्बन्ध में अत्यन्त अधीर तथा निराश रहता है । वह बड़ा ही स्वार्थी होने के साथ-साथ अपनी स्वार्थ परायणता में ही अपने सुखों को खोकर दुखी रहता है। उसका विवाह नहीं होता।
यदि किसी मनुष्य के दाहिने हाथ की शुक्र मुद्रा को इधर-उधर से आने वाली अवरोध रेखाएँ काटें तो वह मनुष्य कामान्ध होकर अपनी यश, कीति और बड़ाई आदि को खो देता है और बदनाम होकर अन्वकारमय जीवन व्यतीत करता है। यदि इन रेखाओं से भाग्य रेखा खण्डित होती हो तो मनुष्य को भाग्यहीन और रवि रेखा के काटे जाने पर वही मनुष्य कर्महीन तथा क्रियाहीन हो जाता है। यदि अभाग्यवश इस शुक्र मुद्रा पर तारे का चिन्ह अंकित हो जाय तो वह मनुष्य किसी न किसी रोग से अवश्य रोगी रहता है ।
उसे धातु क्षीण, प्रमेह आदि रोग हो जाते हैं और जन्म अविवाहित रहकर जीवन व्यतीत करना पड़ता है। यदि यह तारे का चिन्ह शनि क्षेत्र पर मध्यमा उ गली के नीचे शुक्रमुद्रा, भाग्य रेखा तथा अवरोध रेखाओं के मिलने से बना हो तो उस मनुष्य की मृत्यु निश्चयपूर्वक किसी न किसी हथियार द्वारा होगी। बहुत सम्भव है कि वह मनुष्य रिवोल्वर, पिस्टल, कृपाण बन्दूक आदि से मारा जाय ।
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